लेखक : ताबिश ग़ज़ाली
इस घोर आपातकाल के दौर में जब देश को एकजुटता के लिए प्रयासबद्ध करना चाहिए तब मीडिया कोरोना को एक धार्मिक रूप से देख रहा है। हम सब ख़ूब परीचित हैं उस मीडिया से,नाम लेने की आवश्यकता नहीँ है। इस्लाम धर्म में एक शब्द है “जिहाद” जिसका अर्थ पूरी दुनिया केवल आतंक से जोड़ती है। जिहाद का असल अर्थ संघर्ष करना वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में हो। मगर कुछ मीडिया ने इसे इस तरह दिखाया जैसे अभी कुर्ते-पायजामे वाले हाथ में बन्दूक लिए आपको मारने आरहे हैं। अभी हाल ही में हुए दिल्ली के दंगे बरसों से मीडिया द्वारा बोए जा रहे नफ़रत के बीज का उदाहरण हैं। इस परिस्तिथि में केवल corona virus से कैसे बचा जाए इस बारे में सोचें। ज़हर तो परोसा जा रहा है मगर यह निर्भर आप पर करता है कि आप इसे पीते हैं या नहीं।
मीडिया द्वारा किसी एक समुदाय के ख़िलाफ़ किसी दूसरे समुदाय को भड़का कर गृहयुद्ध जैसी स्तिथि पैदा कर देना कोई आज का काम नहीँ। जब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो हमें अफ़्रीका के एक देश रवांडा में 1994 को हुए भीषण नरसंहार पर नज़र पड़ती है। रवांडा में इस नरसंहार को अंजाम देने का पूरा श्रेय रवांडा रेडियो को जाता है। जिसने दिन -रात भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोग्राम कर के एक समुदाय के ख़िलाफ़ किसी दूसरे समुदाय को खड़ा कर दिया।
भारत में यह स्तिथि तक़रीबन 6 वर्षों से है और उसका नतीजा भी निकला “दिल्ली का दंगा”। अगर कोई व्यक्ति सरकार की विफलता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है वह अचानक देश का दुश्मन हो जाता है, हमें सरकार और देश के बीच का अंतर समझना होगा। हम हर ग़लत काम पर अगर सरकार की प्रसंशा करते रहेंगे तो वो दिन दूर नहीँ जब लोकतंत्र राजतंत्र में बदल जाएगा।
अब जब कोरोना वायरस अपने पंख पसार रहा है और देश की स्वास्थ्य योजना का पोल खुल रहा है तो ऐसे में जनता किस से सवाल करे? संसाधन के आभाव में मरना सबसे बुरी मौत है। बजाय इसके की मीडिया सरकार से सवाल करे की ऐसी जर्जर वयवस्था क्यों है वो तो राग अलाप रही है। अब जिसके आप राग अलापियेगा वो तो काम पर ध्यान ही नहीँ देगा। एक बात बचपन में अपने माँ-बाप से सुनी होगी कि बच्चों की तारीफ़ उसके मुंह पे मत किया करो, जी हां ये फ़ॉर्मूला ग़लत नहीँ था।
लेखक : ताबिश ग़ज़ाली (पत्रकारिता छात्र , जामिया मिल्लिया इस्लामिया)