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नई दिल्ली : प्रकाशन विभाग से साल 1975 में प्रकाशित आरसी मजूमदार की किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स’ के मुताबिक साल 1911 में जब सावरकर को क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते कालेपानी की सजा सुनाई गई थी और अंडमान-निकोबार के सेलुलर जेल में भेजा गया था, तब सावरकर ने सजा शुरू होने के कुछ महीने बाद ही अंग्रेजी हुकूमत से रिहाई की गुहार लगाई थी। शुरू में सावरकर ने 1911 में अंग्रेजी सरकार को चिट्ठी लिखी, बाद में सावरकर ने जेल सुप्रीटेंडेंट के जरिए 1913 और 1921 में याचिका दाखिल की थी। अपनी याचिका में सावरकर ने साफ तौर पर लिखा था कि मुझे रिहा कर दिया गया तो मैं भारत की आजादी की लड़ाई छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार (अंग्रेजी हुकूमत) के प्रति वफादार रहूंगा।

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और प्रेस काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भी सावरकर पर अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने लिखा है, सावरकर 1910 ईस्वी तक ही राष्ट्रवादी थे। यह वह दौर था जब वो गिरफ्तार किए गए थे और कालेपानी की सजा पाई थी। बतौर काटजू, जेल में 10 साल गुजारने के बाद अंग्रेजों की तरफ से सावरकर को प्रस्ताव मिला था कि वो सरकार के सहयोगी बन जाएं जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया था। उन्होंने लिखा है कि सेललुलर जेल से छूटने के बाद क्रांतिकारी सावरकर हिन्दू साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के काम में जुट गए थे।

बता दें कि हाल के दिनों में वीर सावरकर को लेकर राजनीतिक पार्टियां आमने-सामने हैं। शिव सेना चीफ उद्धव ठाकरे ने कहा है कि अगर सावरकर इस देश के प्रधामंत्री होते तो पाकिस्तान का जन्म नहीं होता। इसके साथ ही उद्धव ठाकरे ने वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग की है। इसके जवाब में कांग्रेस ने पुराना ऐतिहासिक दस्तावेज शेयर कर निशाना साधा है और कहा है कि यह नहीं भूलना चाहिए कि सावरकर ने ही अंग्रेजों को माफीनामे की चिट्ठी लिखी थी।

Input : जनसत्ता

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By Khabar Desk

Khabar Adda News Desk

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