लेखक : सुशील यति
महाराष्ट्र की सियासत मे एक और शख्स जिसने अपने बयानों और तल्खियों के कारण सुर्खियाँ बटोरी वो थे शिवसेना से राज्यसभा सांसद और सामना के संपादक संजय राउत। अपने बयानों के कारण विवादित रहने वाले संजय राउत ने महाराष्ट्र चुनाव नतीजे आते ही अपने सुर बदले और भाजपा के साथ साथ दूसरे सभी दलों को ये संदेश देने मे सफल रहे कि अब भाजपा के साथ गठबंधन शिव सेना की शर्तों पर ही मुमकिन है। राउत पूरे शिव सेना से एकमात्र ऐसे नेता है जिन्होनें अपने सम्पादकीय, तीखे कार्टूनों और बयानों से लगातार भाजपा नेतृत्व को निशाने पर लिया और ‘सामना’ किया। शुरु-शुरु मे तो ऐसा लगा की ये उनका बड़बोलापन है लेकिन धीरे-धीरे ये समझ मे आने लगा कि ये उनकी विश्वास और कंविक्शन ही है जो इनसे ये सब करा रहा है, और जो वो कह रहे हैं उससे कम पर सेना नहीं मानने वाली है। और ऐसा हुआ भी। ये कहना अतिशयोक्ति नही ही होगी की उनके सुर और शायरी ने महाराष्ट्र की सियासी अटकलों मे चार चाँद लगाये। दुष्यंत कुमार की पंक्तियों के एक बड़े मकसद के अर्थ उनके लिये बहुत सीमित थे। जब उन्होनें कहा, “सिर्फ हंगामा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सुरत बदलनी चाहिये”, तो इसका अर्थ यहीं था कि सूरत मुख्यमंत्री पद से ही बदलेगी।
इस क्रम मे, पाकिस्तान के साथ मैच होने की स्थिति मे “वानखेडे स्टेडियम की पिच खोदने” और “संबंध सुधरते हैं तो सरहद पर क्रिकेट खेलो” की धमकी देने वाली, और हिंदुत्व को लेकर हमेशा उग्र रहने वाली शिवसेना के सैनिक संजय राउत ने महाराष्ट्र मे सरकार बनने से पहले पाकिस्तान के क्रांतिकारी शायर हबीब जालीब की नज़्म, ““तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख़्त नशीं था /उसको भी अपने ख़ुदा होने का इतना ही यकीं था” , के सहारे सीधे-सीधे भाजपा नेतृत्व को निशाने पर लिया। यह बिल्कुल अप्रत्याशित ही था की भाजपा-शिवसेना के बीच इस भाषा मे बातचीत हो रही थी।
इसी क्रम मे, युवा शायर इमरान प्रतापगढ़ी जो नरेन्द्र मोदी सरकार की नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं, और अपनी शायरी मे वंचितों और खासतौर पर मुस्लिमों पर हुई ज्यादतियों को केंद्र मे रखते रहे हैं। अपनी “चौकिदार चोर है”, और “चाय वाले बाबू को चाय ले के डूबेगी” जैसी नज्मों से सीधे आज के मुद्दों से जोडते हैं। उनकी शायरी में थोडी-बहुत फेरबदल के बाद राऊत ने ये ट्वीट किया: “दायरो मे सिमट के आया है, हर रवायत से हट के आया है/ गीदड़ों को जरा खबर कर दो, शेर वापस पलट के आया हैं।” इसे सब ने समझा की भाजपा को क्या कहने की कोशिश की जा रही है।
मैं अब यहाँ यह समझने की कोशिश मे हूँ कि भाजपा के साथ मोहभंग होना समझ मे आता है लेकिन इस तरह का मोहभंग जहाँ वो तथकथित तौर पर हिन्दुत्व के अपने एजेंडे को साइड मे रखकर “काम” की बात करें। दरअसल ऐसा आखिर हुआ क्या कि भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी ने अपना रिश्ता तोड़ने मे जरा भी हिचक नहीं दिखाई, और एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिये तैयार हो गयी? मेरा मानना है – एक तो, शिवसेना भाजपा के साथ पहचान के संकट के साथ जुझ रही थी। उसे हमेशा लगा की वो नंबर दो हैं, पर उसे तो नंबर एक होना था। दूसरी तरफ फ़डनावीस का बढ़ता कद और भाजपा जैसी बड़ी पार्टी होने का लाभ। तीसरी और मुख्य बात, शिव सेना को भाजपा का पतन दिखने लगा था। शिव सेना को ये बात समझ मे आयी की जुमलेबाजी काठ की हांड़ी की तरह ही होती है जो बार-बार नहीं चढ़ती। उसे समझ मे आ गया था कि अगली बार उसे सीटों का और भी नुकसान हो सकता है। इसी के साथ साथ संजय राऊत ने एक ऐसी भाषा का चुनाव किया जिसे शायद भाजपा बिल्कुल ही पसंद ना करे। इसीलिये हबीब जालिब और इमरान प्रतापगढ़ी जैसी आवाज़ों का सहारा लिया, जो कि अनायास ही नहीं बल्कि बहुत सोच समझ के हुआ।
हाल फिलहाल मे सोशल मीडिया पर भारत का एक नक्शा बहुत चर्चा मे रहा, इस नक्शे की खासियत यह थी कि इस नक्शे के भीतर एक और नक्शा खींचा गया है। यह तस्वीर पूरे देश मे भाजपा की सरकारों की स्थिति को लेकर है। इसमे दर्शाया गया है कि कैसे राज्यों से भाजपा का धीरे-धीरे सफाया हो रहा है जिसमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हालिया महाराष्ट्र के इसमें जुड़ने से इस नक्शें पर एक सुखद छवि अंकित हो पायी। जिसमें दर्शाया गया कि पिछ्ले साल जहाँ 71% स्थानों पर भाजपा की सरकार थी महाराष्ट्र के हाथ से निकल जाने की वजह से आज वो 40% पर सिमट गयी हैं। अब संजय राऊत गोआ मे भाजपा से बाहर सरकार बनाने की अटकलों को हवा दे रहें हैं। गौरतलब है कि इस नक्शे को ध्यान मे रखते हुये आने वाले झारखंड और दिल्ली विधानसभा चुनाव भाजपा के लिये परेशानी का सबब हो सकते हैं।
राजनीति मे सिर्फ जीतना ही जरूरी नहीं बल्कि अपने विरोधी खेंमे मे डर का माहौल बनाये रखना भी जरूरी है। ये बात जितनी एनसीपी और कांग्रेस नहीं जानते उससे कहीं ज्यादा अच्छी तरह ये बात शिव सेना जानती है। इसी डर के बूते भाजपा को महाराष्ट्र मे उसने बैकफूट पर धकेल दिया। जिसका असर झारखंड मे भी देखने को मिल रहा है, और हो सकता है आने वाले समय मे भाजपा को वहां भी नुकसान उठाना पड़ें। महाराष्ट्र मे राज्यपाल के सरकार बनाने के निमन्त्रण को जिस सदयता से भाजपा ने स्वीकार नहीं किया उसका एक अच्छा संदेश देने मे वो सफल रही। लेकिन कुछ ही दिनों बाद जिस आनन-फानन मे उसने अजित पवार के साथ रातों-रात सरकार बनाने की कोशिश की और जिस तरह पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा उससे बहुत से प्रश्न खड़े हुये। महाराष्ट्र मे भाजपा की इस उलझन ने अपरिपक्वता का परिचय दिया। जिससे भाजपा की ताकत एक्सपोज हुई, कार्यकर्ताओं का विश्वास डिगा, और देवेन्द्र फणनवीश के इस्तीफ़ा देते ही अचानक ही भाजपा कमजोर दिखने लगी। लेकिन उधर संजय राउत कमान संभाले रहे, उनके तेवर मे कमी नहीं आयी क्योकिं अब इस जादुई पिटारे को समझने और खोलने की चाभी उनके हाथ लग चुकी थी!