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Khabar अड्डा : मैंने एक भी प्राइम टाइम एक देश एक चुनाव थीम पर नहीं किया। एक भी लेख नहीं लिखा। जहां तक मेरी याद्दाश्त सही है, मैंने इस मसले पर न तो कोई शो किया न ही छपा हुआ किसी का लेख पढ़ा।

वैसे मैं हर मसले पर न तो चर्चा करता हूं और लिख सकता हूं। फिर भी इस एक मसले के बारे में बताना चाहता हूं कि क्यों नहीं डिबेट किया। जबकि मेरे आस-पास के विद्वान जानकार अक्सर याद दिलाते रहे कि एक देश एक चुनाव पर चर्चा कीजिए। हॉट टॉपिक है। आज भी यहां लेख छपा है, वहां लेख छपा है। राजनीतिक चर्चाओं मे रूचि रखने वाले हज़ारों बार कहा करते थे कि देख लीजिएगा, मोदी सारे चुनाव एक साथ करा देंगे। ख़ुद को मुद्दा बना देंगे और जीत जाएंगे। कई बार इतना दबाव हो जाता था कि लगता था कि ठीक है इस पर चर्चा करनी चाहिए। मैं एक भी चर्चा नहीं की।

यह एक बोगस और बकवास मुद्दा था। अपने आप में नहीं बल्कि जिस तरह से बिसात पर पासा बनाकर फेंका गया, उससे समझ गया था कि यह बोगस मुद्दा है। आज जब एक अंग्रेज़ी अख़बार में छोटी सी ख़बर देखी तो समझ आ गया कि मेरा मानना कितना सही थी । चुनाव आयुक्त ने कहा है कि 2019 में लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ कराना संभव नहीं है। चुनाव आयुक्त ने कहा कि एक साल तो कानून बनाने में लग जाएगा। उसके बाद चुनाव आयोग को भी तैयारी करने के लिए वक्त चाहिए। फिलहाल हम लोकसभा का ही चुनाव सोच कर 2019 की तैयारी कर रहे हैं।

मोदी सरकार एक चीज़ की मास्टर है। वह समय समय पर थीम और थ्योरी ठेलते रहती है। कुछ थीम मार्केट में आकर ग़ायब हो जाते हैं और कुछ चलते रहते हैं। जैसे मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया का थीम ग़ायब है। स्मार्ट सिटी का थीम ग़ायब है। इन्हें लेकर अब कोई थ्योरी नहीं दे रहा है।

थीम और थ्योरी से मेरा मतलब है ऐसे मुद्दे जिनको सपने की तरह बेचा जा सके कि यह अगर हो जाए तो देश का भला हो जाएगा। समस्याओं के ध्यान हटाने के लिए कुछ इस तरह के थीम आधारित मुद्दे पब्लिक स्पेस में तैरते रहते हैं। कहीं कहीं से आ जाते हैं जिसे कभी मंत्री तो कभी प्रवक्ता तो कभी बुद्धिजीवी लिख-लूख कर या बोल-बूल कर वैधानिक रूप दे देते हैं।

आप याद कीजिए कि आपने एक देश एक चुनाव पर कितनी बहसें देखीं। कितने लेख देखे या पढ़े। क्या हुआ उस मसले का। 2003 से अटल बिहारी वाजपेयी और उससे पहले से आडवाणी इस मसले को पब्लिक स्पेस में धकेलते रहे हैं। कभी कुछ नहीं हुआ। पांच साल के कार्यकाल में मोदी इस थीम को ज़मीन पर नहीं उतार सकेंगे। हां वो चर्चा चाहते थे चर्चा हो गई और चर्चा के बहाने उस पर चर्चा नहीं हुई जिस पर होनी चाहिए थी। नौकरी की समस्या एक उदाहरण के रूप में आप ले सकते हैं।

बुनियादी समस्याओं या सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने के लिए आपको राजनीति अक्सर थीम और थ्योरी थमा देती है। वैसे राजनीति के आस-पास जमा लोग भी इसी थीम और थ्योरी के आधार पर आपस में टकरा रहे होते हैं। उन्हें अपना ज्ञान झाड़ने का मौक़ा मिलता है। सब अपने तर्को को घुसाकर तर्कशील बनते नज़र आते हैं। सब जायज़ लगे इसके लिए कभी कोई कमेटी बना दी जाएगी या कभी सर्वदलीय बैठक बुला ली जाएगी। मोदी जी ने यह भी कहा था कि एक साल के भीतर कमेटी और कोर्ट बनाकर जितने भी नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं, उनका फैसला करवाऊंगा। भले ही उनकी सदस्यता चली जाए, भले ही उपचुनाव कराना पड़े। एक जगह नहीं बल्कि यूपी में भी कहा था, पंजाब में भी कहा था। उस थीम का क्या हुआ

दारोगा और पुलिस की बहाली में धांधली क्यों है, स्टाफ सलेक्शन कमीशन की परीक्षा की तारीख का पता क्यों नहीं है, क्यों 24 लाख पद सरकारी विभागों में खाली हैं, सभी राज्यों के चयन आयोगों की आडिट क्यों नहीं है, क्यों पर्चे लीक हो रहे हैं और क्यों फार्म 300 से 3000 के हो गए हैं, क्यों कालेज में शिक्षक नहीं हैं क्यों बेरोज़गार सड़क पर हैं। इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता है। सत्ता हो या विपक्ष सबको थीम और थ्योरी ठीक लगती है। ज़रूरी है मगर इस रणनीति के नाम पर नहीं कि जनता की आंखों में बहस के ज़रिए धूल झोंकते रहे।

थीम और थ्योरी जैसे मसलों से होता यह है कि उसमें किसी की जवाबदेही नहीं दिखती है। हम ऐसा करेंगे या कर रहे हैं के भाव की निरंतरता दिखती है। लंबा लंबा लेख लिखने को मिलता है। संविधान की धारा का उल्लेख करने को मिलता है। जो कि एक देश एक चुनाव के मामले में ख़ूब किया गया। हज़ारों करोड़ लूट ले जा रहे हैं ये नेता सब। उद्योगपति लाखों करोड़ लोन गबन कर जा रहे हैं। मगर चार पांच हज़ार करोड़ का ख़र्चा बचाने के लिए यह ड्रामा किया जा रहा है। उस पब्लिक को एक बहस का मुद्दा दिया जा रहा है जो रोज़गार,शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा मांगने दरवाज़े खड़ी है।

मोदी सरकार का कार्यकाल सिर्फ मोदी का नहीं है। यह मोदी के लिए न्यूज़ एंकरों का भी कार्यकाल है। उनके मुद्दे इसी थीम और थ्योरी के नेशनल सिलेबस पर आधारित होते हैं। ऐसा लगता है कि उनके पास सरकार का ब्रीफ ही नहीं बल्कि पोर्टफोलियो भी है। थीम और थ्योरी का पोर्टफोलियो। कभी मंदिर है तो कश्मीर है तो कभी तीन तलाक है। ऐसे थीम से बचिए। एक सीमा से ज़्यादा जब बहस हो तो सावधान हो जाइये। याद रखिए हफ्तों आपके मुल्क के चैनलों पर पदमावति फिल्म को लेकर बहस चली है। उसका आधा भी नौकरी के सवाल पर नहीं होता है।

हिन्दी चैनल और हिन्दी के अख़बार मिलकर आपको सूचनाओं से रोक रहे हैं।उनके यहां संवाददाता ख़ूब हैं। एक से एक काबिल भी हैं। आप बहुत कम देखेंगे कि उनका संवाददाता सरकार से सवाल करता है। वो अब टाइप राइटर हो चुका है। मैं बहुतों को जानता हूं। उनका ज़मीर रोज़ परेशान करता है। क्या करें, कहां सड़क पर बैठ जाएं। लेकिन आप तो दर्शक हैं, पाठक हैं, फिर आप क्यों नहीं समझ रहे हैं कि सब कुछ बर्बाद हो रहा है।

इन क़ाबिल संवाददाताओं को रोका गया है ताकि आपको सूचनाविहीन बनाया जा सके। सूचनाविहीन इंसान ग़ुलाम होता है। वो सिर्फ मालिक की बात सुनता है। मालिक की बात समझ सकता है। मालिक जो भी करे, मालिक की नीयत अच्छी लगती है। अब सूचनाओं से नहीं, मालिक को नीयत से जज करने लगता है। जैसे ही उसे बाहर से हवा का झोंका मिलता है, सूचना मिलती है वह बदलने लग जाता है। ग़ुलामी से निकलना चाहता है। इसलिए गोदी मीडिया इतनी मेहनत कर रहा है ताकि आपको हवा का झोंका न मिले।

यह फैसला आपको करना है। आप गोदी मीडिया को अपनी मेहनत की कमाई का एक हज़ार क्यों देते हैं? क्या अपनी ग़ुलामी तय करने के लिए?

यह लेख रविश कुमार का है। यह लेखक के अपने विचार है, इसमें लिखे गए शब्दों के साथ कोई हेर फेर नही की गई है।

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By Khabar Desk

Khabar Adda News Desk

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