लेखक : तारिक़ अनवर चम्पारणी
1952 के प्रथम विधानसभा चुनाव से लेकर 2015 के विधानसभा चुनाव तक बिहार विधानसभा में अलग-अलग कम्यूनिस्ट पार्टीयों के लगभग 273 विधायक चुनकर बिहार विधानसभा में पहुँचे। इन 273 विधायकों मे से केवल 18 मुस्लिम समाज के विधायक है। मुस्लिम समाज के विधायक ढ़ाका, जाले, बारसोई इत्यादि जैसे मुस्लिम घनत्व वाले क्षेत्रों से ही जीतते थे।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है की आखिर कम्यूनिस्ट की सामाजिक न्याय की लड़ाई मे बिहार की लगभग 20 प्रतिशत वाली आबादी इतनी पीछे क्यों रह गयी? कुछ मित्र यह सवाल करेंगे की धार्मिक कट्टरता की वजह से मुसलमान कम्यूनिस्ट पार्टी को समर्थन नहीं देते है। उनका यह तर्क भी भौंडा है। क्योंकि ढ़ाका, जाले, बारसोई, बलराम जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र से भी कम्यूनिस्ट के विधायक जीतते रहे है।
अब कुछ लोग यह भी तर्क दे सकते है की चूँकि उम्मीदवार मुस्लिम थे इसलिए मुस्लिम बहुल से जीत जाते थे। उनका यह भी तर्क भौंडा है। बिसफ़ी और सुगौली मे भी मुसलमानों की बड़ी आबादी है। फिर भी यहाँ से हिन्दू समाज के कम्यूनिस्ट चुनाव जीतकर आते थे। बात-बात पर कम्यूनिस्ट विचारधारा के लोग मुसलमान सांसदों के द्वारा काम का विवरण माँगते है। लेकिन जरा यह कम्यूनिस्ट वाले बताये की अबतक जो भी 273 विधायक चुने गये थे उनहोंने क्या तीर मारा लिया या कौनसा ऐसा बड़ा बदलाव लाया जिसको हम एक मॉडल के रूप मे आगे की नस्ल को पेश कर सके?
भाषणबाजी को छोड़कर उदाहरण दीजिएगा। एक सामाजिक परिवर्तन के लिए 273 लोग मायने रखते है। एक समय मे बिहार विधानसभा मे 34-35 विधायक एक साथ रहते थे। सामाजिक बदलाव के लिए यह संख्या बहुत बड़ी है। लेकिन हुआ क्या? आरएसएस और संघ को नहीं रोक सके। मैं यकीन के साथ बोल सकता हूँ की यह जो 273 लोग थे उनमें से लगभग 200 लोगों का परिवार आज भाजपा और संघ के साथ है। इसलिए भाषणबाजी को छोडकर प्रतिनिधित्व पर बात कीजिये।
नोट :- यह लेखक के अपने विचार है।
लेखक तारिक़ अनवर चम्पारणी टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस(TISS), मुम्बई से दलित एंड ट्राइबल स्टडीज में मास्टर डीग्री है।)