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लेखक : Parvez Alam (पत्रकारिता छात्र, जामिया मिल्लिया इस्लामिया)

चुनावी नतीजों को लेकर चल रही बहस के बीच अहम सवाल यह हो गया है कि क्या इस बार सत्ता की चाबी क्षेत्रीय दलों के पास रहने वाली है? क्षेत्रीय दलों ने 5 सालों के दरमियान राज्यों में जो कुछ अपने राजनीति वर्चस्व को बढ़ाया है, उससे बीजेपी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की निर्भरता क्षेत्रीय दलों पर बढ़ गई है। अलग-अलग सर्वे में जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं इस तरह से तो क्षेत्रीय दलों की लॉटरी निकल सकती है। 2014 में दो दशक के बाद यह पहला मौका आया था, जब कोई पार्टी अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल कर पाई थी। आप इसका श्रेय मोदी लहर को भी दे सकते हैं। क्योंकि बीजेपी ने 282 सीटों को हासिल करके अपने प्रचण्ड जीत का झंडा गाड़ा था। सरकार बनाने के लिए उसे किसी अन्य दल की जरूरत नहीं पड़ी थी।

लेकिन फिर भी बीजेपी ने अपने एनडीए के सहयोगी को सरकार में शामिल किया था। सहयोगी दलों को मिलाकर बीजेपी ने लगभग 300 से ज्यादा सीटें हासिल की थी। क्षेत्रीय दलों को लेकर खास बात यह देखी गई है कि राज्य की राजनीति उनके लिए मुख्य होती है।केंद्रीय राजनीति को ‘राजनीति’ के लिए इस्तेमाल करते हैं। चुनाव से पहले भले ही वह किसी भी गठबंधन के साथ चुनाव लड़े हो लेकिन उनकी पहली पसंद सरकार बनाने वाली पार्टी के साथ जाने की होती है।पाला बदलना उनका स्वभाव भी बन जाता है। जैसे टीएमसी, एआईएडीएमके, डीएमके, एलजेपी, आरएलडी यह सब पार्टी एनडीए व यूपीए का हिस्सा रह चुकी है। तेलुगू देशम थर्ड फ्रंट सरकार का भी हिस्सा रही है। एक समय वह एनडीए की सबसे विश्वसनीय सहयोगी रही है और अब मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों को जुटाने का जिम्मा उठाए हुए हैं ।जदयू भी थर्ड फ्रंट में रह चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की शुरुआत 90 के दशक में हुई थी जब कांग्रेस कमज़ोर हुई थी।1977 में सत्ता से निकलने के बाद 80 और 85 में बड़े बहुमत के साथ सरकार बनाई। लेकिन 1989 में वीपी सिंह की कमान में क्षेत्रीय जुटान से गैर कांग्रेसी सरकार बनी लेकिन या विफल रहा और 1 साल बाद सरकार गिर गई। 1991 में कांग्रेस सत्ता में आई किंतु बैसाखी के सहारे। क्योंकि सिर्फ 240 के आस-पास सीटें मिली और इसके बाद 2014 तक इसी तरह से सरकारे बनी। क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों को बहुमत न मिलने का भरपूर फायदा उठाया। इस बार भी 42 सीटों वाली पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी यानी दीदी ही ‘दादा’ होंगी उसके पूरे पूरे आसार हैं,

और यूपी में सपा, बसपा गठबंधन ने खुद को राजनीतिक गर्त से निकालने का बंदोबस्त कर लिया है। दोनों दल राज्य में बड़े-बड़े वोट बैंक पर काबिज है। इसमें से तो बसपा बीजेपी के साथ यूपी में तीन बार सरकार बना चुकी है। बिहार में सारा खेल क्षेत्रीय राजनीति पर टिका है। राज्य के क्षेत्रीय दलों की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें अपने पाले में बनाए रखने के लिए बीजेपी को अपने कई मौजूदा सांसदों के टिकट काटने पड़े, तो वहीं कांग्रेस 9 सीटों पर ही समझौता करने को राजी हो गई । महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी की भूमिका अहम होगी। तमिलनाडु का चुनाव इस बार पहले से कहीं ज्यादा क्षेत्रीय दलों के बीच में बिखरा हुआ है। उड़ीसा में बीजू जनता दल और तेलंगाना में टीआरएस पहले नंबर की पार्टी होगी करीब-करीब तय है। यह कहना अत्यंत मुश्किल है कि चुनाव के बाद कौन सी पार्टी किसके साथ जाएगी? कर्नाटक में जेडीएस,कांग्रेस के साथ सरकार चला रही है। लेकिन लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद उसकी भूमिका नए सिरे से रेखांकित की जाएगी।

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By Khabar Desk

Khabar Adda News Desk

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