Fri. Oct 18th, 2024

लेखक: डा. मोहम्मद अलीम

हिंदू और बौद्ध धर्म में भगवा तथा मुस्लिमों में हरा, काला और सफ़ेद रंग को पवित्र माना जाता है। (जैसा कि हम ने वर्तमान में पृथ्वी पर सबसे डरावने समूह आईसीस का झंडा देखा है क्योंकि पश्चिमी मीडिया, आई.एस.आई.एस द्वारा ऐसा ही पेश किया गया है। )। इसी प्रकार, कुछ कपड़े और झंडे और दाढ़ी और टोपी पहनने के तरीके जो कि मुस्लिम या यहूदी या ईसाईयों में राएज हैं, लोगों के बीच एक विषेश प्रकार का भय उत्पन्न करते हैं।

इसका मतलब है क्या यह है कि क्या बीतते समय के साथ इन रंगों ने अपनी पवित्रता खो दी है ?

रंगों को कभी भी अपवित्र या अपशगुन नहीं समझा जा सकता है। यह तो ईश्वर के द्वारा दिया मनुष्यों को इस धरती पर सबसे बड़ा उपहार है। लेकिन मनुष्यों ने इसे प्रयोग करने के तरीकों और मंशा के आधार पर अवश्य ही दूसरों की आंखों में एक प्रकार से भय का कारण बना दिया हैं। आज जैसे ही हम किसी को गेरूवा वस्त्र धारण किए हुए देखते हैं, या फिर किसी को टोपी कुर्ता और विशेष प्रकार की दाढ़ी में देखते हैं, तो मन में अनायास एक भय उत्पन्न होने लगता है कि कहीं हम किसी गलत व्यक्ति से तो नहीं जूझने जा रहे हैं।

मौजूदा हालात में तो कुछ ऐसा ही मालूम पड़ता है।

फिर स्वतः यह सवाल भी मन में खड़ा करता है कि कहीं हम एक सभ्य और सुसंकृत समाज से एक विध्वंसक समाज की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं जहां मानवता और प्रेम नाम की कोई चीज ही नहीं होती। वहां अगर किसी का जोर चलता है तो केवल हिंसा और बर्बरता का।

लेकिन प्रश्न यह उठता है इस प्रकार की नैतिक और बौद्धिक गिरावट के लिए कौन जिम्मेदार है ?

क्या हमारे राजनेताओं और धार्मिक प्रमुखों ने हमें मार्गदर्शन देने का अपना नैतिक अधिकार खो दिया है ?

हाल की घटनाओं से तो ऐसा ही मालूम पड़ता है। प्रतिदिन यह खबरें सुनने और देखने को मिलती है उग्रपंथियों ने किसी न किसी संस्था, विश्विद्यालय, मस्जिद, गिरजा घर और मंदिर के पास अपना बदसूरत चेहरा दिखाया है। और ऐसा लगता है कि उन्हें किसी भी कानून का डर नहीं है।

यह हमें खुद से पूछने के लिए मजबूर करता है कि क्या यही देश हमारे पूर्वजों की आकांक्षा का देश था ? क्या हमारी वास्तविक पहचान यही है जो पूरी दुनिया में जानी जाती हैं?

कभी हम किसी ऐतिहासिक ढ़ांचे और प्रतीक के लिए लड़ते हैं। तो कभी हम पूजा की जगह बहाल करने के लिए एक दूसरे के खून का प्यास नजर आते हैं।

दुर्भाग्यवश, यह केवल हमारे प्रिय देश भारत का ही मामला नहीं है, बल्कि दुनिया के लगभग हर हिस्से में हिंसा का दौर जारी है। या तो इसे तथाकथित सभ्य राष्ट्रों ने गैर सभ्य राष्ट्रों पर थोप रखा है या फिर तीसरी दुनिया के लोगों ने स्वयं ही अपनी मूर्खतावश ऐसी लड़ाई को अपने ऊपर हावी कर लिया है।

क्या यह कड़वी सच्चाई नहीं है कि इन तथाकथित सभ्य राष्ट्रों ने अरब दुनिया, विशेष रूप से, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सोमालिया, बर्मा और कई अन्य देशों का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद कर दिया है और लाखों लोगों की हत्या कर दी है और इन आंकड़े से कहीं अधिक लोग दूसरों देशों में शर्णार्थी का जीवन बिताने पर मजबूर हैं। यह भी आश्चर्यजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है कि इनमें से अधिकतर बर्बाद देश कोई न कोई मुस्लिम देश है। तो क्या यह माना जा सकता है कि इन मुस्लिम देशों ने सभ्य तरीके से शासन करने का अपना नैतिक अधिकार खो दिया है ? क्या वे अपने धर्म, इस्लाम की शिक्षाओं को भुला बैठे हैं ?

ऐसा नही है। इस्लाम शांति और प्रेम के प्रतीक के रूप में पवित्र पैगंबर मुहम्मद के युग में प्रकट हुआ था। इसका मतलब है कि गलती धर्म की नहीं है, बल्कि इसके अनुयायियों की है। इसी प्रकार, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म जैसे अन्य सभी महान धर्मों के पास दूसरों के प्रति प्रेम और मानवता को ले कर समान सन्देश मौजूद है। मगर बदकिस्मती से यह सारे सन्देश धार्मिक पुस्तकों तक सीमित हो कर रह गए हैं।

यही कारण के हम बौद्ध बहुल म्यांमार और श्रीलंका में मुस्लिमों की सामूहिक हत्या और पलायन देख रहे हैं। ईसाई निर्दोष मुस्लिमों को मार रहे हैं। हिंदू भी धर्म और जाति के नाम पर दूसरों को निशाना बना रहे हैं। मुसलमान भी जेहाद के नाम पर बड़े पैमाने पर हत्याएं कर रहे हैं।

अगर यही स्थिति रही तो हमें डर है कि कहीं हम बहुत जल्द अपने देश की उस पहचान को खो देंगे जिसके लिए सारी दुनिया में इज्जत की जाती रही है यानि सारे धर्मों से प्रेम और मानवता का संचार।

मुझे आम लोगों से भी शिकायत है कि ज्यादातर मामलों में ऐसा लगता है कि हम ने हिंसावादी लोगों के आगे घुटने टेक दिए हैं। हम उनके मनगढ़त और विकृत आदर्शों पर चलने लगे हैं। अगर ऐसा न होता तो हमारे सामने किसी की हत्या जाति, धर्म के नाम पर हो जाती है और हम देखते रह जाते हैें।
स्त्री धर्म तो लोग भूल ही बैठे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो हमारे समाज में आज छः महीने की बच्ची से ले कर 80 वर्ष की बुढ़िया का धड़ल्ले से बलात्कार की घटनाएं नहीं घटित होतीं ।

मुझे उम्मीद है कि लोग इस विषय पर गंभीरता से विचार करेंगे और स्वयं को विध्वंसक लोगों की विकृत मानसिकता से बचाए रखने का अपना कर्तव्य पूरा करेंगे।

मोहम्मद अलीम एक प्रसिद्ध एवं पुरस्कृत उपन्यासकार, नाटककार, पटकथा लेखक एवं पत्रकार तथा आ सी एन, मीडिया ग्रुप के चीफ न्यूज़ एडिटर हैं.

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By Khabar Desk

Khabar Adda News Desk

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