लेखक : रविश कुमार
अलीगढ़ के टप्पल में उस बच्ची के साथ जो हुआ उसे लेकर एक हिन्दू उबाल गढ़ने का प्रयास किया गया। सुबह से मुझे फोन आने लगे कि 2002 दोहरा देंगे, मुल्लों को सबक सीखा देंगे। भेजने वाला इस निर्भिकता से भेजता है जैसे शासन का आदेश पत्र हो। जून 2017 को प्रधानमंत्री मोदी ने साबरमती में कहा था कि हिंसा से किसी चीज़ का समाधान नहीं हो सकता। उसी भाषण में कहा था कि गांधी होते तो गाय के नाम हत्या को माफ नहीं कर पाते। आज दस दिन से अधिक हो गए, गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताने वाली सांसद प्रज्ञा ठाकुर के ख़िलाफ़ कोई कदम नहीं उठा जा सक है। हम यह अंतर्विरोध रोज़ देखते हैं। हम तो रोज़ चुप रहते हैं।
जैसे देश में होने वाली हज़ारों हत्याओं और बलात्कार की घटनाओं पर चुप होने की छूट है। आपका चुप होना उन तमाम हत्याओं में शामिल होना नहीं माना जाएगा। अलीगढ़ की घटना के अपराध में शामिल नहीं हैं तो आपको बोलना ही होगा क्योंकि आरोपी के नाम ज़ाहिद और असलम हैं। क्योंकि दोनों मुसलमान हैं।
एक मेसेज में ललकारा गया कि अख़लाक़ और आसिफ़ा पर बोलने वाले इस बच्ची पर क्यों चुप हैं। 2018 में कठुआ की आसिफ़ा के बलात्कारी के समर्थन में एक रैली निकली थी। उस रैली में बीजेपी के मंत्री शामिल हुए थे। 1 मार्च को हिन्दू एकता मंच ने बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा लेकर रैली निकाली थी। क्या तिरंगा इसलिए है? उसी में मंत्री पद पर रहते हुए लाल सिंह और चंद्र प्रकाश ने भाषण दिया था। हिन्दी के एक बड़े अख़बार ने उस ख़बर पर भ्रांतियां फैलाई थी। एक पूरा तंत्र खड़ा था बलात्कारी के समर्थन में। इसलिए लिखने वाले चंद लोगों ने लिखा था।
दादरी के अख़लाक़ की हत्या अपराध की घटना नहीं थी। इस घटना की बुनियाद में सांप्रदायिक नफ़रत थी और उस सांप्रदायिक नफ़रत के साथ बहुत सारे लोग खड़े थे। यही नहीं जब हत्या के एक आरोपी रवि सिसोदिया की मौत हुई तब उसके पार्थिव शरीर को तिरंगा झंडा से लपेटा गया। अनुपम खेर कभी तख़्ती नहीं बनाएंगे कि यह तिरंगा का अपमान है। हिन्दुस्तान का अपमान है। क्योंकि अनुपम खेर को सही ग़लत कम हिन्दू और मुसलमान ज़्यादा दिखता है। अपराधी में सिर्फ मुसलमान में दिखता है। अपराध में सिर्फ मुसलमान में दिखता है।
मुझे अख़लाक़ के लिए ही नहीं आरोपी रवि सिसोदिया के लिए भी अफ़सोस है। गौ रक्षा के नाम पर सांप्रदायिक ज़हर ने उसे लपेटे में न लिया होता तो आज उसके परिवार में खुशियां होतीं। नफ़रत की यह राजनीति हमारे घरों में लड़कों को दंगाई और हत्यारा बना रही थी। चैनलों के एंकर हत्यारा बनाए जाने के माहौल को सही बता रहे थे। चंद बुद्धिजीवी इसका विरोध कर रहे थे। न उनके पास मीडिया था, न उनके साथ सरकार थी, फिर भी वे अकेले खड़े होकर विरोध कर रहे थे।
नफ़रत के ख़िलाफ़ बोलना क्या इतना बड़ा अपराध है कि उन्हें हर बात में ललकारा जाए? मैं तो आज भी कहता हूं कि सांप्रदायिकता इंसान को मानव बम में बदल देती है। आपके बच्चे डॉक्टर बनना चाहते हैं, सांप्रदायिकता दंगाई बनाना चाहती है।
अनुपम खेर ने अपनी तख्ती पर सिर्फ इंसाफ़ की बात लिखी। इंसाफ़ की मांग ग़लत नहीं होती मगर यह मांग उस इको सिस्टम का हिस्से का प्रतिनिधित्व था जो इसके पीछे सांप्रदायिक रंग खेल रहा था। जो इसके बहाने बुद्धिजीवियों की चुप्पी को ललकार रहा था। मालिनी अवस्थी अपने फेसबुक पर लिख रही हैं कि जघन्य पाप के पापियों के लिए सोशल एक्टिविस्टों के आंसू नहीं। बुद्धिजीवियों के ट्वीट नहीं। यह सब उस इकोसिस्टम का पार्ट है जो ऐसी घटनाओं के समय अलग-अलग किनारों से उमड़ पड़ता है। इनकी तख़्ती इंसाफ़ के लिए नहीं है, इंसाफ़ के बहाने कुछ और है। अहमदाबाद में अपराधियों के गिरोह ने धावा बोल दिया और बीस दिन के बच्चे की हत्या कर दी। अगर उसके आरोपी का नाम हितेश मारवाडी और सतीश पटनी की जगह ज़ाहिद और असलम होता तब यही लोग इंसाफ़ की मांग कर रहे होते। 2002 की याद दिला रहे होते।
अलीगढ़ की घटना के बहाने फिर से उस सांप्रदायिकता की चिंगारी भड़काई जा रही है। पुलिस ने ट्वीट किया है कि बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई है। अफवाह न फैलाएं। फिर अफवाह को हवा देने वालों का मकसद क्या रहा होगा? बच्ची की हत्या भी कम जघन्य नहीं है। तो भी यह सांप्रदायिक कैसे हुआ? क्या राज्य सरकार तुष्टीकरण के नाम पर ज़ाहिद और असलम को बचा रही थी? क्या हममें से कोई ज़ाहिद और असलम के साथ ख़ड़ा था? क्या अलीगढ़ के मुसलमान इन आरोपियों के पक्ष में कठुआ की तरह रैली निकाल रहे थे? सबका जवाब ना में मिलेगा. जो चुप हैं उनके यहां भी और जो बोल रहे हैं उनके यहां भी। मगर जो पूछ रहे हैं उनसे हिसाब कौन मांगेंगा?
जब यही बुद्धिजीवी रोज़गार की समस्या से लेकर प्रधानमंत्री के बोले गए झूठ पर लेख लिखते हैं तब तो ये एंकर उनकी बातों को लेकर सरकार को नहीं ललकारते हैं। जैसे ही इन्हें किसी मामले में कोई मुसलमान देखता है ये पत्रकारिता के नाम पर उन्माद फैलाने लगते हैं। अनुपम खेर जैसे कुछ कलाकार तख़्ती लेकर मीडिया को मुद्दा देते हैं। उनकी तस्वीर स्क्रीन पर दिखाकर घर बैठे लोगों के दिमाग़ में ज़हर भरा जाता है। इस प्रक्रिया में मुसलमान को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जाता है। लेकिन उससे पहले जिनके दिमाग़ में यह कचरा भरा जाता है उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा चुका होता है। इसलिए व्यापक हिन्दू हित में यह ज़रूरी है कि सभी न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दें। क्योंकि चैनलों में धर्म के नाम पर हिन्दुओं से झूठ बोला जा रहा है।
ये न्यूज़ चैनल शास्त्रों के उस हिस्से का भी अपमान करते हैं जिनमें लिखा है कि सच्चा धार्मिक वह है जो सत्य के लिए सर कटा दे। जो निर्भीक हो। न्यूज़ चैनलों की धार्मिकता तो झूठ की बुनियाद पर खड़ी है। उनमें निर्भीकता देखनी हो तो एंकर के सामने अमित शाह को खड़ा कर दीजिए। ऐसे एंकर पत्रकारिता और न ही किसी धर्म के प्रतिनिधि हो सकते। जिन एंकरों की सरकार के सामने हलक सूख जाती है, जो सरकार के लिए झूठ फैलाते हैं, वो आपको हिन्दू होना सीखाने लगे तो सतर्क हो जाइये।
अंत में मोदी समर्थकों से एक बात कहना चाहता हूं। झूठ, प्रपंच और बेहिसाब पैसे के दम पर खड़ी राजनीति का विरोध कीजिए। आप सत्य का बंटवारा हिन्दू सत्य और मुस्लिम सत्य में मत कीजिए। आप सत्ता के साथ खड़े हैं तो आपकी जवाबदेही ज्यादा है। आप उस सत्य के साथ खड़े होइये जो सत्य होता है। सत्ता के लिए झूठ को सत्य मत बनाइये।
सच्चा हिन्दू डरपोक नहीं होता है। वह सत्य के लिए सत्ता से भिड़ जाता है। उसे अफवाहों के पीछे छिप कर राजनीतिक सफलता हासिल करने और नफ़रतों के आधार पर एक राजनीतिक मानस का निर्माण करने का विरोध करना चाहिए। अपराध से लड़ना चाहिए, अपराधी के धर्म से नहीं। सच्चा हिन्दू पत्रकारिता के सत्य और धर्म के लिए भी लड़ेगा न कि गोदी मीडिया के एंकरों के झूठ के लिए।
चैनलों के ज़रिए हिन्दू पराभव का मार्ग मत चुनिए। चैनलों के हिन्दू धूर्त हित हैं। उनके यहां सत्य का नैतिक बल नहीं हैं। जहां सत्य का नैतिक बल नहीं होगा वह सच्चा हिन्दू नहीं हो सकता है। आप हिन्दू धर्म की बात करने वालों की टाइम लाइन पर जाकर देखें। सरकार से शायद ही कभी कोई सवाल मिल जाए। ये एंकर तो अपने नागरिक होने का फ़र्ज़ नहीं निभा पा रहे हैं, हिन्दू होने का क्या निभाएंगे।
प्रधानमंत्री ने अभी-अभी तो सबका साथ- सबका विश्वास का नारा दिया है। अनुपम खेर ने उनके इस नारे के मूल भाव का अपमान किया है। खेर की तख़्ती झूठ और नफ़रत के आधार एक समुदाय के प्रति भय और अविश्वास को गहरा करती है। जिस तरह से प्रधानमंत्री ने साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर के प्रति उदारता दिखाई है, मैं चाहूंगा कि वे अनुपम खेर के प्रति भी उदारता दिखाएं। इतनी सी बात के लिए कोई कार्रवाई न करें। क्योंकि सिर्फ अनुपम खेर ही नहीं हैं। ऐसे लोग रहेंगे। वे अगर कुछ कर सकते हैं तो अपनी गोदी मीडिया के एंकरों से कहें कि हिन्दू मुसलमान बंद करो। चाहो तो चार-पांच इंटरव्यू और ले लो। उनके पास दिखाने को कुछ नहीं है।