यह कविता ताबिश ग़ज़ाली द्वारा लिखी गई है। जो जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पत्रकारिता के छात्र एवं युवा कवि हैं।
निकल कर ख़ुद चले आओ,
क़दम में इंक़लाब ले कर,
बिछा लो ख़ुद को सड़कों पे,
ज़ंजीर पहन कर रक़्स करो तुम,
मक़तल में क़ातिल को ढूंढो,
और खोल दो अपनी नसें सारी,
ख़ून पिलाओ ख़ून बहाओ,
लाल कर दो धरती सारी।
इतना हंसों के दुश्मन रोए,
पाप की सारी गंगा धोये।
जीने को अभी तो उम्र पड़ी है,
पर आज मारेगा तू कल जियेगा।
अपने पाओं के छालों से तू,
हरी घास को लाल कर दे,
तू रक्त पिला तू रक्त बहा,
तू रक्त खिला तू रक्त दिखा,
हम भारत माँ के लाल सारे,
लाल करेंगे इस धरती को।
लाल हरा भी लाल केसरिया,
वीरों का बलिदान भी लाल,
लाल है अशोक चक्र भी,
कलिंगा की धरती भी लाल,
पानीपत की धरती भी और,
महाभारत का शस्त्र भी लाल,
धरती का सीना भी लाल,
मज़दूरों का पसीना भी लाल,
जीवन का है स्रोत भी लाल।
अब उठेगी लाल आंधी ,
लहरायेगी झूम कर और,
फटेगा पर्वत का सीना,
निकलेगा लावा भी लाल,
भस्म करेगी आग भी जलकर,
जिसका शोला होगा लाल।
पाक करेंगी धरती को,
रक्त बहा कर सारी नस्लें,
फिर होगा एक अमन बहाल,
मतलब,
लाल, लाल , लाल।