साहित्य के सबसे बड़े उत्सव ‘विश्व पुस्तक मेला’ से आगाज़ करना किसी भी कलमकार के लिए सबसे बड़ा सम्मान है। ऐसे में सतना के युवा कवि प्रशांत सिंह का कविता संग्रह आना हमारे लिए गौरव की बात है। हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली के सौजन्य से छपा प्रशांत का पहला कविता संग्रह “ख़याल ज़िंदा हैं” उम्मीद की एक नई परिभाषा को जन्म देता है। प्रशांत कहते हैं कि ‘ख़याल ज़िंदा है’ सिर्फ एक काव्य संग्रह ही नही बल्कि एक यात्रा भी है। जो ज़िंदगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करता हुआ इक चोटी पर पहुँचता है, जहाँ से दूर कहीं उम्मीद का एक क़तरा नज़र आता है। पतझड़ आ चुका है। सारा का सारा जंगल वीरान हो चुका है। लेकिन जंगल के बीचोबीच एक दरख़्त अपनी हरी-भरी भुजाओं के साथ आज भी ज़िंदा है, मानो इस बात का संकेत दे रहा हो कि उम्मीद अभी बाकी है। और ये जो काले स्याह बादलों ने घेर लिया है मेरे घर को, ये भी छट जायेंगे किसी रोज़ इक नई सुबह होने पर।
ख़याल ज़िंदा हैं जहाँ एक ओर हमारे इर्द-गिर्द की मुसीबतों और कठिनाइयों का बिंब प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर समाधान और उम्मीदों से रूबरू कराने से भी पीछे नहीं हटता। ‘ख़याल ज़िंदा है’ के माध्यम से इन्होंने व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनैतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। भाषा की सरलता और भावों के सुंदर बिंब इसे और ज्यादा पठनीय बना देते हैं।
1. उसकी रोटी
देर तक झुलसता है जिस्म,
और देह की आंच पर पकती है रोटी।
उतारकर रख दिया है उम्र को इक कोने में,
सड़क पर बेख़बर खेलते बच्चों की ख़ातिर।
संभावनाओं के बाज़ार में देर तक,
टकटकी लगाए बैठा रहता है मजदूर।
निहारता है ठेकेदार की ठंडी आँखों में,
की शायद, उसे तरस आ जाये..
उसकी आंत छू रही अंतड़ियो पर,
और इसबार उंगली का इशारा उसकी तरफ हो।
कर्ज में डूबा हुआ किसान,
लगाता है चक्कर सियासती बैंको के।
मुनाफा इतना, कि मूड़ तो मूड़ ही रहा..
लेकिन ब्याज तले दबता रहा हरिया।
फिर किसी रोज़ उसकी रूह के ख़ाली पन्ने,
किसी रोटी पर लटके हुए पाए जायेंगे।
दालमंडी की खिड़कियों से,
झांकती है तवायफ़ की बंजर आँखें।
गुज़रती है उसके जिस्म से होकर उसकी रोटी,
सेंकी जाती है उसके सीनो के उभारों पर।
कारोबार ज़रा गर्म है यहां,
कारोबार..बस रोटी का ही तो है।
किसी की उम्र गुज़र जाती है,
रोटियां बनाने में।
किसी की उम्र गुज़र जाती है,
रोटियां कमाने में।
फर्क़ सिर्फ इतना-सा है,
की उसकी रोटी क्या है?
2. मैं फिर से लिखूँगा
दिनभर की थकान
को ओढ़कर
सोने जाता हूँ जब
रात को बिस्तर पर,
तब अक्सर मुझे
ख़याल आता है तुम्हारा।
कितनी ही देर तक
मैं पढ़ता रहता हूँ
स्मृति के पन्नों को।
उलट पलटकर
रख देता हूँ
एक-एक अक्षर।
बाद उसके
मैं बुनता रहता हूँ
शब्दों के जाल,
लेकिन मैं
बुन नहीं पाता
कोई कविता।
मैं छिटककर
चला जाता हूँ
छत के किसी कोने में,
और देर तक
निहारता रहता हूँ
दूर तक
पसरा हुआ सन्नाटा।
नुक्कड़ के कोने में
थोड़ी ही दूर पर
अँधेरे से लड़ रही होती है
लैम्पपोस्ट की बत्ती।
उसका लड़ना
मुझे ताक़त देता है,
उसका लड़ना
मुझे जीवित रखता है।
शायद मेरे भीतर का
कवि अभी मरा नहीं है,
मैं फिर से जोड़ूंगा
उन शब्दों को…
मैं फिर से लिखूंगा
एक सुन्दर कविता।
कविता की रूह में
जन्मेगा प्रेम
और मैं फिर से
जीवित हो जाऊंगा।
जवाहर नवोदय विद्यालय सतना से इंटर पास करने के बाद प्रशांत ने सतना से ही कॉमर्स में ग्रेजुएशन पूरा किया। साल 2013 के आखिरी में दिल्ली का रुख़ किया और Genpact India Pvt. Ltd. और HSBC मे Financial Professional के तौर पर काम किया। अभिनय में रूचि के चलते अस्मिता थिएटर ग्रुप, दिल्ली और रंग परिवर्तन थिएटर ग्रुप, गुरुग्राम के साथ जुड़े। थिएटर से जुड़ने के पश्चात साहित्य पढ़ने की ओर रुझान बढ़ा और उसी दौरान कुछ-कुछ लिखने की शुरुआत हुई। हिंद युग्म प्रकाशन नई दिल्ली से इनका पहला कविता संग्रह ‘ख़याल ज़िंदा हैं’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अलावा इनका एक कहानी संग्रह ‘ख़्वाबों का गुलदस्ता’ अमेज़न किंडल से प्रकाशित हुआ है। वर्तमान मे मुंबई मे अभिनय और लेखन के क्षेत्र मे राह तलाश रहे हैं। जल्दी ही अमेज़न प्राइम की वेब सीरीज में एक छोटे एवं महत्वपूर्ण किरदार में नजर आएँगे।